भारत की विश्व में बदलती भूमिका
ब्रिटेन के एक अंतर्राष्ट्रीय विचार मंच ने विश्व में भारत की बदलती भूमिका पर एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत बेशक अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर अहम किरदार निभाने की आकांक्षा रखता है, लेकिन उसने कुछ हद तक अपनी इन इच्छाओं को बाधित किया हुआ है। इसकी वजह यह है कि वह स्वयं को एक विकासशील देश महसूस करता है और उसे सर्वप्रथम घरेलू चुनौतियों से दो-चार होने का दबाव झेलना पड़ता है। इसी महीने पेश की गई इस रिपोर्ट में चैथम हाउस के विश्लेषक गारेथ प्राइस कहते हैं, “भारत के ज़्यादातर योजनाकार विश्व में ज्यादा अहम भूमिका निभाने की अपनी आकांक्षा पूरी करने की दिशा में कदम बढ़ाने की बजाय अब भी घरेलू चुनौतियों की तरफ ध्यान केन्द्रित करते हैं और उसे प्राथमिकता देते हैं।“
इस रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत सहायता औऱ विकास के क्षेत्र में अपनी भूमिका बढ़ा रहा है।
हालांकि भारत से बड़ी मात्रा में सहायता प्राप्त करने वालों में अब भी उसके पुराने साथी अफगानिस्तान, भूटान और नेपाल ही हैं। वह दुनिया के अन्य देशों खासतौर पर अफ्रीका में भी अपनी यह कोशिशें बढ़ा रहा है। इस हफ्ते प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इथोपिया में भारत-अफ्रीका शिखर सम्मेलन के दौरान कई ऋणों के साथ-साथ एक रेलवे योजना को सहायता प्रदान करने की घोषणा भी की।
रिपोर्ट कहती है, “योजनाकार समझते हैं कि मदद के ज़रिए और अन्य देशों के साथ आर्थिक क्षेत्र में संबंध बढ़ाकर भारत द्वारा सहायता प्राप्त करने वाले और दानदाता दोनों ही देशों के बीच एक उभरती हुई विश्व ताकत के तौर पर उसकी स्वीकार्यता बढ़ेगी।“
भारत की सबसे बड़ी विकास योजना, “117 मिलियन डॉलर पैन-अफ्रीकन ई-नेटवर्क परियोजना” है। इस योजना को भारत का विदेश मंत्रालय ऋण मुहैय्या कराता है। इसमें 33 अफ्रीकी देश सम्मिलित हैं। इस परियोजना के तहत भारतीय तकनीकी विशेषज्ञ भारत के स्कूलों और अस्पतालों को अफ्रीका के स्कूलों अस्पतालों से जोड़ते हैं।
लेकिन जब कभी अमेरिकी एजेंसी या फिर ब्रिटेन के अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग की तर्ज पर भारत में किसी सहायता एजेंसी की स्थापना की बात की जाती है। तो कई वजहों से भारत कदम पीछे खींच लेता है।
रिपोर्ट कहती है कि ई-नेटवर्क के अपने अनुभव के पश्चात भारत सरकार ने करीब चार साल पहले अपने बजट में एक भारतीय अंतर्राष्ट्रीय विकास सहयोग एजेंसी के गठन का प्रस्ताव दिया था। ऐसा इसलिए किया गया था कि बड़ी परियोजनाओं को लेकर भारत द्वारा दी जाने वाली मदद औऱ किए जाने वाले कार्यों को ज़्यादा सहज और कारगर बनाया जा सके। लेकिन तार्किक और सैद्धान्तिक कारणों के पश्चात इसे स्थगित करने का फैसला किया गया।
रिपोर्ट कहती है कि भारत के विदेश मंत्रालय में करीब 700 लोगों का छोटा स्टाफ है। दुनिया के कई देश भारत से ताल्लुकात बढ़ाने के प्रयत्नों में लगे हुए हैं, लिहाज़ा उन पर लगातार काम का बोझ बढ़ रहा है। विदेश मंत्रालय अपने बजट का एक हिस्सा सहायता एजेंसी के लिए अलग नहीं करना चाहता। ना ही वित्त मंत्रालय का आर्थिक मामलों से जुड़ा विभाग। रिपोर्ट कहती है कि कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग ने भी इस पर आपत्ति दर्ज कराई है, जिसे प्रधानमंत्री का भी समर्थन हासिल है।
इस मुद्दे का एक बिंदु यह है कि स्वयं एक विकासशील देश होते हुए, भारत इस तरह की कोशिश करने (या कोशिशों का दिखावा करने) हेतु अनिच्छुक है। वो विदेशों में इस तरह का कोई कार्य करने का इच्छुक नहीं जो वो अपने ही देश में अब तक नहीं कर पाया है।
रिपोर्ट कहती है, “भारत के योजनाकार घरेलू विकास योजनाओं के संदर्भ में इस बात को लेकर अनिश्चितता की स्थिति में हैं कि क्या सफल है और क्या नहीं। ऐसे में इस बात की संभावना कम ही है कि इस तरह की योजना बनाई जाए जिससे दूसरे देशों में वृहद स्तर पर “विकास” का निर्यात किया जाए।
यही वो तमाम कारण हैं जिनकी वजह से संभवत: भारत “सहयोग” संबंधी अपने कार्यों का वर्णन पश्चिम की तर्ज़ में नहीं करता। भारत हमेशा से ही मदद देने और लेने की पेचीदगियों को भली-भांति समझता था। (भारत ने कई बार बड़े हादसों के बाद सहायता देने से इन्कार कर दिया और इसके लिए अकसर उसकी आलोचना भी हुई)।
लेखक कहते हैं, “इसे “विकास के लिए सहायता” कहने या फिर “सहायता” कहने की बजाय भारत लगातार “दक्षिण के साथ दक्षिण” के सहयोग की बात करेगा।
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