बीजेपी के प्रेरणा स्रोत रहे श्यामा प्रशाद का इतिहास,किया था अंग्रेजो भारत छोडो आंदोलन का विरोध

ये किसी से छिपा नहीं है कि आज़ादी की लड़ाई में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई योगदान नहीं था। उल्टा संघियों को जब भी मौका मिला, उन्होंने अँग्रेज़ों का ही साथ दिया। यहाँ तक कि बीजेपी के पूर्व अवतार जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जिन्हें बीजेपी वाले और मोदी अपना प्रेरणा पुरुष बताते थकते नहीं हैं, वही श्यामा प्रसाद आज़ादी से पहले की बंगाल की उस सरकार में उपमुख्यमंत्री थे, जिसकी अगुवाई मुस्लिम लीग़ के उसी नेता फ़ज़लुल हक़ कर रहे थे, जिसमें देश के विभाजन में बड़ी भूमिका निभायी थी। बँटवारे के बाद यही फ़ज़लुल हक़, पाकिस्तान की पहली लियाक़त अली सरकार में गृहमंत्री बने थे।

इतिहारकार आर सी मज़ूमदार की किताब से पता चलता है कि 1942 में जब भारत छोड़ो आन्दोलन यानी क्विट इंडिया मूवमेंट अब चरम पर था, जब श्यामा प्रसाद मुखर्ज़ी ने अँग्रेज़ गर्वनर को मशविरा दिया था कि कैसे और क्यों इस आन्दोलन का सख़्ती से दमन करना ज़रूरी है। इस ऐतिहासिक तथ्य से साफ़ है कि सत्ता लोपुप श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने निजी और संघ के राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धि के लिए उन अँग्रेज़ों का साथ लिया था, जिनसे संघर्ष करते हुए महात्मा गाँधी की अगुवाई में काँग्रेसी लोग आज़ादी हासिल करने के लिए तमाम जद्दोज़हद कर रहे थे।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर संघी नारा लगाते हैं कि ‘जहाँ हुआ बलिदान मुखर्जी वो कश्मीर हमारा है’, लेकिन सच्चाई ये है कि मुखर्जी उस वक़्त मुस्लिम लीग़ में बड़े नेता की हैसियत रखते थे, जब उसकी बंगाल में सत्ता थी। कालान्तर में जब मुस्लिम लीग़ की राजनीति की वजह से देश के बँटवारे के हालात बन गये तो मुखर्जी ने अपना सियासी चोला बदल लिया और वो काँग्रेस में शामिल हो गये। आज़ादी के बाद उनके सियासी क़द और अनुभव को देखते हुए जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें अपनी सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाया।

लेकिन महात्मा गाँधी की हत्या के बाद जब इस बात की भनक लगी कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी और संघ के शीर्ष नेताओं ख़ासकर वीर सावरकर के बीच बहुत नज़दीकी है तो हालात ऐसे बन गये कि मुखर्जी ने नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफ़ा दे दिया और जल्द ही हिन्दू महासभा से रूपान्तरित होकर बनी भारतीय जनसंघ के संस्थापक बन गये। जनसंघ की स्थापना के पीछे उस सावरकर की अहम भूमिका थी, जिसने 1911 और 1913 में अँग्रेज़ों से माफ़ी माँगकर अपनी कालापानी की सज़ा में रियायत की फ़रियाद की और बदले में अँग्रेज़ों की हर-सम्भव मदद करने का वादा किया। ऐसे ही प्रयासों की वजह से सावरकर को 1921 में राहत देकर उनके गृहनगर पुणे की यरवदा जेल में भेज दिया था।

आगे चलकर यही रहते हुए अँग्रेज़ों की इच्छा के मुताबिक, सावरकर ने उस संघ की स्थापना की जो उस सिक्के का दूसरा पहलू था जिसके एक ओर कट्टरपन्थी मुसलमान थे तो दूसरी ओर कट्टरपन्थी हिन्दू। इन दोनों को ही अँग्रेज़ों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने का काम सौंपा था। ताकि काँग्रेस और उसकी अगुवाई में चल रहे स्वतंत्रता आन्दोलन में दिखने वाली आवाम की एकता को कमज़ोर किया जा सके।

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